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कोई भी सामाजिक एवं राजनीतिक आन्दोलन अपनी प्रासंगिकता कभी नहीं खोता है बल्कि कुछ समय के लिए उसमें ठहराव आ जाता है . अतः यह कहना कि अन्ना जी का लोकपाल आन्दोलन अपनी प्रासंगिकता खो चुका है , जल्दबाजी होगी . अन्ना के आन्दोलन के साथ मुंबई में जो हुआ वह यकायक नहीं है . कोई भी देश लगातार आंदोलनों के दौर से नहीं गुजर सकता . संसदीय लोकतंत्र में यह बात और महत्वपूर्ण हो जाती है . मुंबई करों ने यह बात अन्ना और उनकी टीम को बेहद ख़ामोशी के साथ लेकिन सधे हुए अंदाज में बता दी . अन्ना जी को देश की यह आवाज भी सुननी चाहिए . पिछले एक साल से आन्दोलनों के नाम पर जिस तरह से देश की प्रगति में बाधा डाली गई वह भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना की लोकपाल .पिछले एक साल में आर्थिक विकास ठहर सा गया है . विदेशी निवेशक भाग रहे हैं तो इसका भी श्रेय आन्दोलनकारियों को स्वयं लेना चाहिए क्योकि उनकी गतिविधियों ने देश में आर्थिक उठा पटक मचा रखी है . आखिर यह प्रश्न भी विचारणीय है की देश जब राजनीतिक उथल पुथल से गुजर रहा होगा तो कौन निवेशक यहाँ निवेश करना चाहेगा ? इमानदार प्रधान मंत्री भ्रष्टाचार से निपटें या सरकार बचाएं अथवा अपनी पूरी उर्जा आन्दोलन से निपटने में लगायें . अन्ना जी प्लीज आपका आन्दोलन दबाव समूह की तरह कार्य करे यह तो स्वीकार्य है ,पर जब आप और आप की टीम संसद की तरह कार्य करने लगती है तो यह स्वीकार्य नहीं है . संसदीय लोकतंत्र में संसद की महत्ता है ब्यक्ति की नहीं . इसलिए जब आपके एक सहयोगी यह कहते हैं की अन्ना ही संसद हैं तो यह बक्तव्य अस्वीकार्य हो जाता है . आपका आन्दोलन विफल नहीं हुआ है बल्कि उसमें ठहराव आ गया है . कृपया थोडा संसद को भी वक्त दें. देश को आपसे बहुत उम्मीदें हैं .
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